ऑस्ट्रेलिया के चिड़ियाघर में रहने वाले 12 साल के जिराफ ने गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया है। जिराफ का नाम फॉरेस्ट है। गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने फॉरेस्ट को दुनिया का सबसे ऊंचा जीवित जिराफ घोषित किया है। इसकी लम्बाई 18 फीट 8 इंच है। गिनीज के मुताबिक, जिराफ की लम्बाई को नापना बेहद मुश्किल रहा। इसके लिए स्टाफ को एक विशेष नाप वाला खंभा बनाना। यह जिराफ क्वींसलैंड के ऑस्ट्रेलिया जू में रहता है।,
संरक्षणकर्ता स्टीव इरविन का परिवार करता है देखरेख
क्वींसलैंड के ऑस्ट्रेलिया जू का संचालन दिवंगत ऑस्ट्रेलियाई संरक्षणवादी स्टीव इरविन का परिवार करता है। फॉरेस्ट ने जब गिनीज रिकॉर्ड बनाया तो इसकी घोषणा उनकी बेटी बिंडी इरविन ने की। यहां के चिड़ियाघर में हर साल 7 लाख लोग आते हैं।
फॉरेस्ट का जन्म न्यूजीलैंड में हुआ था
बिंडी कहती हैं कि इस जिराफ का जन्म 2007 में न्यूजीलैंड के ऑकलैंड जू में हुआ था और दो साल बाद इसे नए घर में ट्रांसफर किया गया था। यह काफी ऊंचा है। इसकी ऊंचाई दूसरे दो जिराफ पर भारी पड़ती है। यह हमारे चिड़ियाघर का एकमात्र मेल जिराफ है।
कोशिश रहेगी की इसकी अगली पीढ़ियां यहां जन्म लें
वह कहती हैं कि हमें फॉरेस्ट पर गर्व है कि उसने गिनीज रिकॉर्ड बनाया। अगली बार जब आएं तो फॉरेस्ट से जरूर मिलें। हमारी पूरी कोशिश रहेगी कि इस प्रजाति की बेहतर देख करें और इसकी अगली पीढ़ियां यहां जन्म लें।
काफी मुश्किल रहा जिराफ को नापना
गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड के मुताबिक, इसे दुनिया का सबसे ऊंचा जिराफ घोषित करने की प्रक्रिया काफी चुनौती भरी रही। हमारे स्टाफ को इसके लिए विशेष खम्भा तैयार करना पड़ा। इस पूरी तैयारी में काफी समय लगा। वीडियो को कैप्चर करने में महीनों लगे।
फॉरेस्ट से पिछले एक दशक में 12 जिराफ जन्मे
फॉरेस्ट जिराफ से पिछले एक दशक में 12 जिराफ जन्मे हैं। जल्द ही एक और छोटे जिराफ का जन्म होने वाला है। ऑस्ट्रेलिया जू में इस पीढ़ियों को आगे बढ़ाने के लिए ब्रीडिंग प्रोग्राम चलाया जा रहा है। जिसे काफी सराहा गया है।
अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प स्कूलों को दोबारा खोलने पर जोर दे रहे हैं लेकिन शोधकर्ताओं ने संक्रमण का खतरा जताया है। अमेरिकी शोधकर्ताओं का कहना है कि 5 साल से कम उम्र के बच्चों में बड़ी संख्या में कोरोनावायरस मिल सकते हैं। ये संक्रमण की अहम वजह बन सकते हैं। यह दावा शिकागो में हुई रिसर्च में किया गया है।
5 साल से कम उम्र के 46 बच्चों पर हुई रिसर्च
शोधकर्ताओं के मुताबिक, 23 मार्च से 27 अप्रैल तक 145 मरीजों का स्वैब टैस्ट कराया। इनमें कोरोना के हल्के लक्षणों से लेकर सामान्य लक्षणों वाले मरीज शामिल थे। इन मरीजों को उम्र के मुताबिक समूहों में बांटा गया। पहला समूह 5 साल तक की उम्र वाले 46 बच्चों का बनाया गया। दूसरा समूह 5 से 17 साल उम्र वाले 51 बच्चों का बनाया गया। तीसरा समूह 18 से 65 साल के 48 बच्चों को बनाया गया।
कम उम्र के बच्चे कोरोना के वाहक बन सकते हैं
शोधकर्ता टेलर हील्ड सार्जेंट के मुताबिक, इन बच्चों की सांस नली में अधिक संख्या में कोरोनावायरस मिले। ये जितनी मात्रा में मिलेंगे संक्रमण का खतरा उतना ही बढ़ेगा। शोधकर्ता कहते हैं कि 5 साल से कम उम्र के बच्चे कोरोना के वाहक बन सकते हैं और इनसे आबादी के बीच संक्रमण फैल सकता है।
सुदर्शन क्रिया तनाव बेचैनी को घटने के साथ मन में सकारात्मक विचारों का प्रवाह बढ़ाती है। येल यूनिवर्सिटी की रिसर्च में यह बात सामने आई है। रिसर्च के मुताबिक, श्वसन तकनीक यानी सुदर्शन क्रिया से छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य में सुधार हुआ। फ्रंटियर्स इन सायकियाट्री जर्नल के मुताबिक, छात्रों को स्वास्थ्य के 6 क्षेत्रों अवसाद, तनाव, मानसिक स्वास्थ्य, सचेतन अवस्था, सकारात्मक प्रभाव और सामाजिक जुड़ाव में सुधार देखा गया।
क्या है सुदर्शन क्रिया
सुदर्शन क्रिया एक लयबद्ध श्वसन तकनीक है, जो आर्ट ऑफ लिविंग के कार्यक्रमों में सिखाई जाती है। जो जीवकोषीय स्तर पर तनाव और भावनात्मक विष को दूर करती है। शोध यह दर्शाता है कि यह तकनीक नींद के चक्र को सुधारने, हैप्पी और फील गुड हार्मोन्स जैसे - ऑक्सीटोसिन के स्राव को सुधारने, तनाव उत्पन्न करने वाले हार्मोन्स,जैसे - कॉर्टिसोल के स्राव को कम करने का काम करती है। यह सजगता को बढ़ाने और चिकित्सीय अवसाद लक्षणों को कम करने में मदद करती है।
8 हफ्तों में 135 स्टूडेंट्स पर हुई स्टडी
फ्रंटियर्स इन सायकियाट्री जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, कठिन परिस्थिति से उबरने के लिए ऐसे कार्यक्रम मददगार साबित हुए हैं। इन प्रोग्राम्स का परीक्षण 8 हफ्तों तक 135 अंडरग्रेजुएट विद्यार्थियों पर किया गया और परिणामों की तुलना उन नियंत्रित अंडरग्रेजुएट विद्यार्थियों के समूह से की गई, जिन्होंने ऐसे प्रोग्राम्स में हिस्सा नहीं लिया था।
तीन वेलनेस प्रोग्राम के आधार पर मूल्यांकन किया
शोधकर्ताओं के मुताबिक, नियंत्रित समूह की तुलना में एसकेवाई (सुदर्शन क्रिया योग) कैंपस हैप्पीनेस ने काफी सुधार दिखा। रिसर्च में शामिल स्टूडेंट्स को अवसाद, तनाव, सचेतन, अवस्था, सकारात्मक प्रभाव और सामाजिक जुड़ाव जैसी छह स्थितियों में मदद मिली।
येल चाइल्ड स्टडी सेंटर और येल सेंटर फॉर इमोशनल इंटेलिजेंस की शोध टीम ने क्लासरूम में हुए तीन वेलनेस ट्रेनिंग प्रोग्राम के आधार पर मूल्यांकन किया। इन सभी प्रोग्राम्स में श्वसन और भावनात्मक बुद्धिमत्ता की रणनीति शामिल थीं।
स्लीप एपनिया यानी नींद से जुड़ी एक गंभीर बीमारी। स्लीप एपनिया की स्थिति में हमारी नींद कई बार टूटती है। कई स्थितियों में तो सांस रुक भी सकती है। स्लीप एपनिया की स्थिति में हम कई बार करवटें बदलते रहते हैं। आप जानकर हैरान होंगे- देश की 13 फीसदी आबादी ऑब्स्ट्रक्टिव स्लीप एपनिया से पीड़ित है। पुरुषों में 19.7%, वहीं महिलाओं में यह आंकड़ा 7.4% है। स्लीप एपनिया की स्थिति में एक घंटे में तीस या इससे ज्यादा बार भी सांस का रुकना या करवटें बदलने जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। यह एक ऐसा विकार है, जिससे नींद से जुड़ी और समस्याएं भी खड़ी हो सकती हैं।
उदाहरण के तौर पर- शोध बताते हैं, यदि आपकी रात की नींद एक घंटे भी कम हो जाए तो अगले दिन आपकी अलर्टनेस 32 फीसदी तक कम हो जाएगी। स्लीप एपनिया को समझने से पहले हमें, नींद को समझना जरूरी है। दरअसल, हमारी नींद तीन से चार चक्रों में पूरी होती है। हर चक्र लगभग पांच चरणों से गुजरता है। चौथा चरण सबसे गहरी नींद का होता है। पांचवां चरण REM या रैपिड आई मूवमेंट का चरण होता है। यह वो चरण होता है, जिसमें हम सपने भी देखते हैं। नींद के वक्त ही, हमारे शरीर में ग्रोथ हार्मोन प्रवाहित होते रहते हैं। जिनसे शरीर की दैनिक क्रियाएं होती हैं। नींद के दौरान शरीर का तापमान कम होता है। हृदयगति एवं ब्लड प्रेशर में कमी आती है जिससे दिल को आराम मिलता है।
स्लीप एपनिया में कई बार नींद टूटती है। जिससे इन सभी प्रक्रियाओं में खलल पड़ता है। अमेरिका की नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के एक शोध के अनुसार, कोविड-19 के इस दौर में स्लीप एपनिया की शिकायत और बढ़ सकती है। शिरीष जौहरी, ईएनटी विशेषज्ञ, नेशनल हेल्थ केयर ग्रुप, सिंगापुर बता रहे हैं स्लीप एपनिया है क्या और यह किस तरह से हमारे शरीर पर प्रभाव डालता है।
6 सवाल-जवाब से समझिए स्लीप एपनिया और उससे जुड़े खतरों के बारे में
#1) स्लीप एपनिया आखिर है क्या?
यह एक तरह का स्लीप डिसऑर्डर है। दरअसल, कुछ लोगों में पीठ के बल लेटने से गले की मुक्त पेशियां गुरुत्व के प्रभाव से गले के पिछले हिस्से की ओर फैल जाती हैं। और नींद की शिथिलता में श्वसन मार्ग के बीचों-बीच खिंच जाती हैं। इस खिंचावट से हवा का प्रवाह आंशिक या पूर्ण रूप से बाधित हो सकता है। इससे फेफड़ों में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। मस्तिष्क इस कमी को दस सेकंड तक ही सह सकता है। ऐसी स्थिति में दिमाग नींद को तोड़ देता है। जैसे ही नींद टूटती है- श्वसन मार्ग फिर खुल जाता है। बार-बार नींद आने और टूटने के इस चक्र को स्लीप एपनिया कहते हैं।
#2) इससे जुड़े प्रमुख लक्षण क्या हैं?
खर्राटे लेना इसका एक प्रमुख लक्षण हो सकता है। सोने में कठिनाई हो सकती है। मुंह सूखता है।
नींद के दौरान कुछ समय के लिए सांस रुक जाना।
सांस में कमी के साथ अचानक नींद का खुल जाना।
सुबह के समय सिर में दर्द महसूस होना। दिन में ज्यादा नींद का आना।
चूंकि, स्लीप एपनिया आपकी पूरी स्लीप साइकल को बिगाड़ देता है। ऐसे में चिड़चिड़ाहट होने लगती है। साथ ही एकाग्रता घटने लगती है।
#3) स्लीप एपनिया के कितने प्रकार हैं?
सेंट्रल : यह तब होता है जब हमारा मस्तिष्क सांस लेने वाली मांसपेशियों को निर्देश नहीं दे पाता। इसके चलते सांस लेने की प्रक्रिया अवरुद्ध होने लगती है।
ऑब्स्ट्रक्टिव : मस्तिष्क मांसपेशियों को सांस लेने के निर्देश तो देता है, लेकिन वायुमार्ग में किसी प्रकार की रुकावट के कारण मांसपेशियां सांस लेने में असफल हो जाती हैं।
मिक्स्ड : जब सेंट्रल और ऑब्स्ट्रक्टिव स्लीप एपनिया दोनों एक साथ हो जाएं तो इसे मिक्स्ड स्लीप एपनिया कहा जाता है। यह एक गंभीर स्थिति है।
#4) स्लीप एपनिया का इलाज क्या है
ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया के लिए सबसे बेहतर उपचार सीपीएपी (कांटीनुअस पॉजटिव एयरवेज प्रेशर) थेरेपी को माना जाता है। इसकी मदद से सांस लेने वाले वायुमार्गों को खुला रखने के लिए एयर प्रेशर का स्तेमाल किया जाता है। यह काफी सस्ता और प्रभावी है। हालांकि इसके स्थायी उपचार के लिए सर्जरी का उपयोग किया जाता है, लेकिन यह बहुत ही खर्चीला होता है। इसमें कुछ जोखिम भी हो सकते हैं।
#5) स्लीप एपनिया के खतरे क्या हैं?
स्लीप एपनिया एक खतरनाक स्वास्थ्य समस्या है। इससे खतरनाक ह्रदय रोग और लकवे जैसी गंभीर बीमारियां आपके शरीर पर हमला कर सकती हैं।
#6) खर्राटों का इससे क्या संबंध हैं?
खर्राटे स्लीप एपनिया का लक्षण हो सकते है लेकिन यह स्लीप एपनिया के बगैर भी हो सकते हैं। खर्राटों का होना प्राकृतिक है।
77 मिनट की ही गहरी नींद ले पाते हैं भारतीय
गहरी नींद के मामले में भारतीय सबसे ज्यादा पिछड़े हैं। पूरी रात में औसतन 77 मिनट की गहरी नींद ले पाते हैं। सिंगापुर, पेरू और हॉन्गकॉन्ग के लोग भी सबसे कम सोने वाले लोगों की लिस्ट में शामिल हैं। कम सोने से भारतीयों में स्लीप डिसऑर्डर आम है। ये आंकड़े फिटबिट द्वारा 1 अगस्त 2018 से 31 जुलाई 2019 के बीच किए गए अध्ययन के अनुसार।
खतरा सबसे कम नींद लेने वालों में भारतीयों का स्थान दुनिया में दूसरा
फिटबिट द्वारा 18 देशों में अध्ययन के अनुसार कम नींद के मामले में भारतीय दूसरे नंबर पर हैं। एक भारतीय औसतन 7 घंटे और 1 मिनट की नींद ले पाता है जबकि हमसे भी कम 6 घंटे 41 मिनट की नींद जापानी लेते हैं।
देश में कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि देश में जांच का दायरा बढ़ रहा है। कोविड-19 की जांच के लिए कई तरह के टेस्ट किए जा रहे हैं। लेकिन ज्यादातर लोग इन जांच में फर्क नहीं समझ पा रहे हैं। जैसे आरटी- पीसीआर, रैपिड एंटीजन टेस्ट और ट्रू नेट टेस्ट में क्या अंतर यह कैसे समझें। जानिए कोरोना की कौन सी जांच कब कराएं...
#1) आरटी- पीसीआर टेस्ट
क्या है : कोरोना वायरस की जांच का तरीका है। इसमें वायरस के आरएनए की जांच की जाती है। आरएनए वायरस का जेनेटिक मटीरियल है। तरीका क्या है : नाक एवं गले के तालू से स्वैब लिया जाता है। ये टेस्ट लैब में ही किए जाते हैं। रिजल्ट आने में कितना समय लगता है : 12 से 16 घंटे एक्यूरेसी कितनी है : टेस्टिंग की इस पद्धति की विश्वसनीयता लगभग 60% है। कोरोना संक्रमण के बाद भी टेस्ट निगेटिव आ सकता है। मरीज को लक्षणिक रूप से भी देखा जाना जरूरी है।
#2) रैपिड एंटीजन टेस्ट (रैट)
क्या है : कोरोना संक्रमण के वायरस की जांच की जाती है। तरीका क्या है : नाक से स्वैब लिया जाता है। वायरस में पाए जाने वाले एंटीजन का पता चलता है। रिजल्ट आने में कितना समय लगता है : 20 मिनट एक्यूरेसी कितनी है : अगर टेस्ट पॉजिटिव है तो इसकी विश्वसनीयता लगभग 100% है। मगर 30-40 % मामलों में यह निगेटिव रह सकता है। उस स्थिति में आरटी-पीसीआर टेस्ट किया जा सकता है।
#3) ट्रू नेट टेस्ट क्या है : ट्रू नेट मशीन के द्वारा न्यूक्लिक एम्प्लीफाइड टेस्ट किया जाता है। अभी इस मशीन से टीबी व एचआईवी संक्रमण की जांच की जाती है। अब कोरोना का स्क्रीन टेस्ट किया जा रहा है। तरीका क्या है : नाक या गले से स्वैब लिया जाता है। इसमें वायरस के न्यूक्लियिक मटीरियल को ब्रेक कर डीएनए और आरएनए जांचा जाता है। रिजल्ट आने में कितना समय लगता है : तीन घंटे
एक्यूरेसी कितनी है : 60 से 70 % मरीजों में कोरोना के संक्रमण की संभावना को बताता है। निगेटिव होने पर आरटी-पीसीआर किया जा सकता है।
#4) एंटीबॉडी टेस्ट क्या है : यह शरीर में पूर्व में हुए कोरोना वायरस के संक्रमण की जांच के लिए किया जाने वाला टेस्ट है। संक्रमित व्यक्ति का शरीर लगभग एक सप्ताह बाद लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाता है। 9वें दिन से 14वें दिन तक एंटीबॉडी बन जाती है। तरीका क्या है : खून का सैंपल लेकर किया जाता है। रिजल्ट आने में कितना समय लगता है : एक घंटा एक्यूरेसी कितनी है : कोरोना वायरस की मौजूदगी का सीधा पता नहीं चलता। केवल एंटीबॉडी की उपस्थिति की जानकारी मिलती है। इससे यह पता चलता है कि व्यक्ति को कभी इंफेक्शन हो चुका है। संक्रमण बहुत हल्का होने पर कभी कभी एंटीबॉडी टेस्ट में नहीं पाई जाएगी।
दांत में दर्द हो रहा है तो उसे नजरअंदाज न करें। यह संक्रमण हो सकता है जो बढ़कर दिमाग तक पहुंच सकता है। ब्रिटेन में एक ऐसा ही मामला सामने आया है।
35 साल की रेबेका डॉल्टन को चलने में तकलीफ हुई और धीरे-धीरे मेमोरी घटने के बाद हॉस्पिटल लाया गया। जांच करने पर मस्तिष्क में बैक्टीरिया का संक्रमण देखा गया। डॉक्टर्स ने भी उसके बचने की उम्मीद छोड़ दी थी। रेबेका को लगातार हॉस्पिटल में 5 महीने बिताने पड़े। डिस्चार्ज होने पर उन्होंने कहा, मुझे नया नजरिया मिला है, ये सीख बताती है कि आप कुछ भी हल्के में नहीं ले सकते।
दांत के इलाज के बाद चलने-फिरने में दिक्कत हुई और मेमोरी घटी
रेबेका का इलाज करने वाले डॉक्टर के मुताबिक, दिसम्बर 2019 में उसके दांतों में बैक्टीरिया का संक्रमण हुआ था। जिसे उन्होंने कई बार नजरअंदाज किया। यही बैक्टीरिया दांतों से दिमाग तक पहुंचा। मार्च में दांतों की समस्या का इलाज कर दिया गया था। लेकिन दिक्कत कुछ दिन बाद शुरू हुई जब रेबेका को चलने-फिरने में दिक्कत शुरू हुई। मेमोरी घटने लगी। वह हॉस्पिटल आईं और जांच की गईं।
संक्रमण मस्तिष्क तक पहुंचा और हार्ट और लिवर तक में उसका असर दिखा
डॉक्टर्स के मुताबिक, महिला की जांच रिपोर्ट में सामने आया कि उस बैक्टीरिया का संक्रमण दिमाग तक पहुंचा। जांच रिपोर्ट में इसका असर हार्ट और लिवर तक में दिखा। वह अपने चलने-फिरने की क्षमता खो चुकी थीं। डॉक्टर्स ने रेबेका का मामला हल रॉयल इनफरमरी के न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट में ट्रांसफर किया। बचने की सम्भावना बेहद कम थी, यह बात रेबेका की मां को बताई जा चुकी थी।
कोरोना की 12 रिपोर्ट निगेटिव आईं और 30 किलो तक वजन घटा
रेबेका का इलाज कोरोना के मरीजों के बीच चल रहा था लेकिन उसकी 12 जांच की गईं जो निगेटिव आईं। लगातार 5 महीनों तक चले इलाज के बाद वह रिकवर हुईं। पिछले हफ्ते इन्हें डिस्चार्ज किया गया है और वजन करीब 30 किलो तक घट चुका है।
सीख मिली कि छोटी से छोटी चीज नजरअंदाज नहीं करनी चाहिए
रेबेका चार बच्चों की मां हैं। इलाज के दौरान उनका अनुभव कैसा रहा, इस पर वह कहती हैं कि यह सबकुछ एक झटके जैसे था, इससे उबरना काफी मुश्किल रहा। मुझे नया नजरिया मिला है, ये सीख बताती है कि आप कुछ भी हल्के में नहीं ले सकते। छोटी से छोटी चीज भी जान को जोखिम में डाल सकती है।
कोरोना से उबरने के बाद भी वायरस के संक्रमण का असर लम्बे समय तक शरीर में दिख सकता है। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन जर्नल की रिसर्च यही बताती है। शोध के मुताबिक, कोरोना से उबरने वाले 80 फीसदी लोगों में हृदय से जुड़ी दिक्कतें देखी गई हैं। रिसर्च अप्रैल और जून के बीच में हुई थी। इसमें कोरोना के ऐसे मरीज शामिल थे जो संक्रमण से पहले स्वस्थ थे और उम्र 40 से 50 साल के बीच थी।
100 मरीजों पर हुई रिसर्च
शोधकर्ताओं के मुताबिक, कोरोना से पीड़ित 100 लोगों पर रिसर्च की गई। इनमें से 67 मरीज ऐसे थे जो एसिम्प्टोमैटिक थे या इनमें बेहद हल्के लक्षण दिख रहे थे। अन्य 23 मरीजों को हॉस्पिटल में भर्ती किया गया था। मरीजों के हार्ट पर कोरोना का क्या असर पड़ रहा है इसे जानने के लिए एमआरआई, ब्लड टेस्ट और हार्ट टिश्यू की बायोप्सी की गई।
78 फीसदी मरीजों के दिल में सूजन
शोधकर्ता क्लायड डब्ल्यू येंसी के मुताबिक, रिसर्च में सामने आया कि 100 में से 78 मरीजों के हार्ट डैमेज हुए और दिल में सूजन दिखी। इससे इस बात के प्रमाण मिले कोरोना से उबरने के बाद बहुत सी बातें सामने आनी बाकी हैं कि भविष्य में शरीर के अंगों पर इसका कितना असर पड़ेगा। जितना ज्यादा संक्रमण बढ़ेगा भविष्य में उतना ज्यादा बुरे साइड-इफेक्ट का खतरा बढ़ेगा।
ब्रिटेन में हुई स्टडी में भी यही पैटर्न नजर आया
ब्रिटेन में हुई एक और ऐसी ही स्टडी में सामने आया कि कोरोना के 1216 मरीजों में संक्रमण के बाद हृदय से जुड़े डिसऑर्डर दिखे। 15 फीसदी मरीजों में हृदय से जुड़े ऐसे कॉम्प्लिकेशंस सामने आए जो बेहद गंभीर थे और जान का जोखिम बढ़ाने वाले थे।
ऐसा क्यों हो रहा है
मरीजों पर लम्बे समय तक कोरोना के साइडइफेक्ट क्यों दिखते हैं, वैज्ञानिक इसका पता लगाने में जुटे हैं। उनका कहना है कि कोरोना सीधे तौर पर मरीजों के फेफड़े पर असर करता है। जिससे शरीर में ऑक्सीजन का लेवल प्रभावित होता है। इस स्थिति में हृदय को ब्लड दूसरे अंगों तक पहुंचाने में काफी मेहनत करनी पड़ती है। लगातार दबाव बने रहने पर हार्ट के टिश्यू कमजोर होने लगते हैं और हृदय रोगों से जुड़े मामले सामने आते हैं।
टोक्यो के ज्यादातर रेस्तरां खाली पड़े हैं लेकिन यहां एक रेस्तरां ऐसा भी है जहां भीड़ नजर आती है। यह टोक्याे का मसातो टेकमाइन चाइनीज रेस्तरां है। यहां सोशल डिस्टेंसिंग को मेंटेन करने और अकेलेपन को दूर करने का अनोखा तरीका ढूंढा गया है। रेस्तरां में मॉडल कस्टमर (डमी) रखे गए हैं। जो आपको खाना खाते समय अकेलेपन का अहसास नहीं होने देते और परिजनों के साथ सोशल डिस्टेंसिंग भी बरकरार रखने में मदद करते हैं।
जापानी ड्रेस में दिखे मॉडल कस्टमर
रेस्तरां में 16 पुतलों को मॉडल कस्टमर के तौर पर रखा गया है। सभी मॉडल अलग-अलग मूड के हैं। कुछ ने जापानी पोशाक किमोनो पहन रखी है तो कुछ ने वेस्टर्न ड्रेस का पहना हुआ है।
पहले सोशल डिस्टेंसिंग के लिए टेबल हटाई गई थीं
रेस्तरां का कहना है कि सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के लिए पहले टेबल हटाई गई थीं ताकि अधिक जगह हो जाए। लेकिन ऐसा करने पर यहां आने वाले लोगों को काफी अकेलापन महसूस होता था। ऐसा लगता था कि रेस्तरां में कंस्ट्रक्शन वर्क चल रहा है।
बाहर से देखने पर रेस्तरां में भीड़ नजर आती है
रेस्तरां ओनर के मुताबिक, इन पुतलों के कारण रेस्तरां को बाहर से देखने के कारण भीड़ नजर आती है। कस्टमर को सर्विस देने के दौरान इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वे सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं या नहीं।
अगस्त के पहले रविवार को मनाए जाने वाले फ्रेंडशिप डे की शुरुआत दुनियाभर में अलग-अलग समय पर हुई लेकिन मकसद एक ही था एक दिन अपने दोस्त के नाम। इसे इंटरनेशनल फ्रेंडशिप डे का नाम दिया गया। इस दिन की शुरुआत कैसे हुई इसकी 3 कहानियां हैं। तीनों ही काफी दिलचस्प हैं। इस साल फ्रेंडशिप डे 2 अगस्त को मनाया जाएगा। जानिए इस खास दिन की शुरुआत से जुड़ी 3 कहानियां...
पहली कहानी : एक व्यापारी ने एक-दूसरे को कार्ड देने की परंपरा शुरू की
एक प्रचलित कहानी के मुताबिक, इस दिन की शुरुआत करने का श्रेय एक व्यापारी को जाता है। 1930 में जोएस हॉल नाम के व्यापारी ने सभी लोगों के लिए एक ऐसा दिन तय किया जब दो दोस्त एक-दूसरे को कार्ड दें और इस दिन को यादगार बनाएं। जोएस हॉल ने इसके लिए 2 अगस्त का दिन चुना। बाद में यूरोप और एशिया के कई देशों में फ्रेंडशिप डे मनाने की परंपरा शुरू हुई।
दूसरी कहानी : डिनर पार्टी करके फ्रेंडशिप डे की नींव रखी
फ्रेंडशिप डे से जुड़ी दूसरी कहानी के मुताबिक, 20 जुलाई 1958 को डॉ. रमन आर्टिमियो ने एक डिनर पार्टी के दौरान अपने दोस्तों के साथ मित्रता दिवस मनाने का विचार रखा था। पराग्वे में हुई इस घटना के बाद विश्व में फ्रेंडशिप डे मनाने की परंपरा पर खासा ध्यान दिया गया।
तीसरी कहानी : अपने दोस्त के मरने की याद में खुदकुशी की
फ्रेंडशिप डे की शुरुआत साल 1935 में अमेरिका से हुई थी। एक प्रचलित कहानी के मुताबिक, अमेरिकी सरकार ने एक इंसान को अगस्त के पहले रविवार को मार दिया था। इस खबर से आहत होकर उसके दोस्त ने खुदकुशी कर ली। इसके बाद सरकार ने ही अगस्त के पहले रविवार को फ्रेंडशिप डे रूप में मनाने की घोषणा की।
कोरोना पर एक और नई बात सामने आई है। अमेरिकी शोधकर्ता मेसीज बोनी का कहना है कि कोरोनावायस हॉर्सशू चमगादड़ में कई दशकों से सर्कुलेट हो रहा है। लेकिन इस बात से सब बेखबर रहे। इस समय महामारी के जो हालात हैं उसमें कोरोना की वंशावली को समझना बेहद जरूरी है ताकि स्वास्थ्यकर्मियों को इंसानों को बचाने में मदद मिल सके।
शोधकर्ताओं के मुताबिक, वर्तमान में जो कोरोनावायरस महामारी फैला रहा है उसके पूर्वज चमगादड़ में 40 से 70 साल पहले से मौजूद थे। धीरे-धीरे ये इंसानों में पहुंचने के लिए तैयार हुए।
कोरोना की लैब में तैयार होने पर सवाल उठाती है रिसर्च
कोरोना और चमगादड़ के कनेक्शन पर दुनियाभर के वैज्ञानिकों ने रिसर्च की है। शोधकर्ताओं ने रिसर्च में सामने आए नतीजे जारी किए हैं। पेन्सिलवेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता मेसीज बोनी के मुताबिक, चमगादड़ में दूसरे वायरस की मौजूदगी इंसानों में संक्रमण का खतरा और बढ़ा सकती है। यह रिसर्च कोरोना की उस थ्योरी पर सवाल उठाती है जिसमें कहा गया था कि इसे लैब में तैयार किया है।
धीरे-धीरे यह अपने पूर्वज वायरस से अलग हो गया
ग्लासगो यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता प्रो. डेविड रॉबर्टसन के मुताबिक, महामारी फैलाने वाला कोरोनावायरस चमगादड़ में मिलने वाले वायरस से काफी मिलता-जुलता है। दशकों तक यह समय के साथ अपने पूर्वज वायरस से अलग हो गया। प्रो डेविड कहते हैं, हमें यह समझने की जरूरत है कि यह वायरस इंसानों तक कहां से और कैसे पहुंचा। अगर हम यह मान लेते हैं कि यह चमगादड़ से फैल रहा है तो ऐसे समय में इसकी मॉनिटरिंग बेहद जरूरी है।
वायरस के नए वाहक बनने की आशंका ज्यादा
प्रो. डेविड कहते हैं कि अगर यह वायरस लम्बे समय आसपास रहा है तो इसका मतलब ये भी हो सकता है कि इसने अपना नया वाहक ढूंढ लिया हो। यानी संक्रमण किसी नए जीव के जरिए भी फैल सकता है। नेचर माइक्रोबायोलॉजी जर्नल में प्रकाशित शोध के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने वर्तमान वायरस (Sars-CoV-2) के जीनोम सिक्वेंस का मिलान इसके पूर्वज (RaTG13) से किया तो दोनों में काफी समानताएं दिखीं।
काला पीलिया की दवा लेने वाले मरीजों में कोरोना का संक्रमण नहीं हुआ। दुनियाभर के कई देशों में भी काला पीलिया यानी हेपेटाइटिस की दवा कोरोना से बचाव करने में मददगार साबित हुई है। यह दावा PGIMS रोहतक की रिसर्च में किया गया है। यहां के गैस्ट्रोएंट्रोलॉजी विभाग और नेशनल वायरल हेपेटाइटिस सेंट्रल प्रोग्राम के मॉडल ट्रीटमेंट सेंटर में डेढ़ हजार मरीजों पर रिसर्च की गई।
5 माह तक मरीजों की हुई मॉनिटरिंग
गैस्ट्रोएंट्रोलॉजी विभाग के हेड और सीनियर प्रोफेसर डॉ. प्रवीण मल्होत्रा ने दावा किया कि काला पीलिया की दवा कोविड-19 में कारगर हैं। 5 माह तक हेपेटाइटिस बी व सी का इलाज कराने वालों में डेढ़ हजार मरीजों को चिह्नित करके मार्च से जुलाई माह तक उनकी हेल्थ मॉनिटरिंग की गई।
रिसर्च में शामिल डेढ़ हजार मरीजों ने नहीं दिखे लक्षण
शोधकर्ताओं के मुताबिक, रिसर्च में पाया गया कि काला पीलिया की दवा लेने वाले डेढ़ हजार मरीजों को कोरोना से मिलते जुलते लक्षण नहीं आए और न ही कोरोना संक्रमित हुए। डॉ. प्रवीण मल्होत्रा के मुताबिक, स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से अगर इसका बड़े स्तर पर ट्रायल किया जाता है तो सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे।
ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया को भेजा गया प्रपोजल
काला पीलिया में लेडिपसविर और डसाबूविर के साथ सोफासबूबिर का कॉम्बिनेशन दिया जाता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, कोरोना के मरीजों का इलाज करने के लिए यह कॉम्बिनेशन रेमेडेसिविर से ज्यादा बेहतर है। कोरोना के मरीजों पर इसका ट्रायल करने की तैयारी की जा रही है।
PGIMS रोहतक, इंटॉक्स प्राइवेट लिमिटेड और काउंसिल फॉर साइंटिफिक एंड इंस्ट्रियल रिसर्च नेशनल केमिकल लेबारेट्री के साथ मिलकर बड़े स्तर पर ट्रायल करेगा। इसके लिए ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (DCGI) को प्रपोजल भेजा गया है।
चेन्नई के एक निजी अस्पताल में 3 साल के रूसी बच्चे को कृत्रिम हार्ट और कृत्रिम पम्प लगाए गए गए। बच्चा अब स्वस्थ है। यह ट्रांसप्लांट एमजीएम हेल्थकेयर के डॉक्टरों ने किया है। हॉस्पिटल की ओर से जारी बयान के मुताबिक, रूसी बच्चे का नाम लेव फेडोरेंको है। उसका सर्जिकल बायवेंट्रिकुलर हार्ट इम्प्लांट किया गया है। बच्चा रेस्ट्रिक्टिव कार्डियोमायोपैथी से जूझ रहा था। अस्पताल पहुंचने से पहले उसे दो बार दिल का दौरा पड़ चुका था।
क्या होती है रेस्ट्रिक्टिव कार्डियोमायोपैथी
रेस्ट्रिक्टिव कार्डियोमायोपैथी की स्थिति में हार्ट के लोवर चेम्बर इतने सख्त हो जाते हैं कि उसमें खिंचाव खत्म होता है और ब्लड नहीं पहुंच पता। लगातार दो महीने चली दवाओं के बाद स्थिति और नाजुक हुई तो सर्जरी ही एकमात्र विकल्प बचा था।क्या है बर्लिन हार्ट जिसे बच्चे को लगाया गया
अस्पताल के मुताबिक, बच्चा दो बार कार्डियक अरेस्ट झेल चुका है। सर्जरी की मदद से हार्ट पम्प और कृत्रिम हार्ट लगाया गया। कृत्रिम हार्ट जर्मनी के बर्लिन से मंगाया गया था। बर्लिन हार्ट शरीर के बाहर ही रखा जाता है और यह अंदरूनी हार्ट से सीधे कनेक्ट रहता है। आमतौर इसे लगाने के लिए बर्लिन से डॉक्टरों की पूरी टीम भेजी जाती है लेकिन महामारी के दौरान ऐसा सम्भव नहीं था, इसलिए वर्चुअली मदद लेकर इसे लगाया गया। जर्मनी और ब्रिटेन के डॉक्टरों की टीम ने सर्जरी के दौरान लगातार नजर बनाए रखी।
7 घंटे चली सर्जरी
डॉक्टरों के मुताबिक, यह ट्रांसप्लांट काफी जटिल था और सर्जरी पूरी होने में 7 घंटे लगे। सर्जरी 25 मई को हुई थी। एमजीएम हेल्थ केयर के डायरेक्टर डॉ. केआर बालाकृष्णन के मुताबिक, बच्चे के हार्ट को रिकवर होने के लिए ब्लड सर्कुलेशन की जरूरत पड़ती है इसके लिए बर्लिन हार्ट उसे सपोर्ट करेगा। बच्चा अब रिकवर हो चुका है। उसका वजन भी बढ़ा है। उसे आईसीयू से डिस्चार्ज कर दिया गया है।
शरीर से दुर्गंध क्यों आती है, वैज्ञानिकों ने इसका कारण पता लगा लिया है। वैज्ञानिकों का कहना है इसका कारण एक एंजाइम है जिसे आर्मपिट (बगल) में पाई जाने वाली बैक्टीरिया बनाती हैं। यही शरीर से दुर्गंध के लिए जिम्मेदार होता है। शोधकर्ताओं ने इसे बीओ एंजाइम नाम दिया गया है। यह रिसर्च ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ यॉर्क ने यूनिलिवर के साथ मिलकर की है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक, स्ट्रेफायलोकोकस होमिनिस बैक्टीरिया खास तरह रसायन रिलीज करती है जो दुर्गंध की वजह बनता है। यह बैक्टीरिया आदिमानव के काल से इंसानों में है। इसलिए पीढ़ी तरह पीढ़ी इसने आर्मपिट में अपनी जगह बनाई है।
डियोड्रेंट तैयार करने में मदद करेगी यह रिसर्च
शोधकर्ता डॉ. गॉर्डन जेम्स के मुताबिक, यह रिसर्च कई नई बातें सामने लाई है। जैसे उस एंजाइम को खोजा गया जो सिर्फ आर्मपिट की बैक्टीरिया बनाती हैं। यह लाखों सालों से इंसानों में मौजूद हैं। इसकी पहचान होने के बाद अब एंजाइम के मुताबिक, डियोड्रेंट तैयार किए जाएंगे ताकि इसे न्यूट्रिलाइज या खत्म किया जा सके।
बैक्टीरिया को बिना नुकसान पहुंचाए दुर्गंध कंट्रोल करने की तैयारी
शोधकर्ता डॉ. माइकल रुडेन के मुताबिक, बीओ एंजाइम की संरचना को समझने के साथ हम उन बैक्टीरिया को भी समझ पाए हैं जो इसे एंजाइम को तैयार करती हैं। इससे यह जानकारी भी मिली है कि शरीर की दुर्गंध कैसे काम करती है और इसे कैसे रोका जा सकता है बिना बैक्टीरिया को नुकसान पहुंचाए बगैर।
शरीर का तापमान नियंत्रित करने वाली ग्रंथि के कारण ये बैक्टीरिया पनपीं
शोधकर्ताओं के मुताबिक, इस बैक्टीरिया की वजह है शरीर की एपोक्राइन ग्रंथि। यह ग्रंथि स्किन से जुड़ी होती है और बालों के जरिए शरीर से पसीना बाहर निकालती है। यह ग्रंथि आर्मपिट, चेस्ट और जननांगों के आसपास पाई जाती है। ये शरीर के बेहद जरूरी हैं क्योंकि इनकी मदद से शरीर का तापमान नियंत्रित किया जाता है।
रशिया के पावेल चिलीन ने अपना खुद का मिनी रेलवे तैयार किया है। 62 साल के पावेल इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं, इन्होंने 350 मीटर लम्बी नैरो गेज रेल तैयार की है। एक बड़े से मैदान में इसकी पटरी बिछाई गई हैं। यह एरिया सेंट पीटर्सबर्ग से 50 किलोमीटर की दूरी पर है। यह ट्रेन आपको रेल के सफर का यादगार अनुभव कराती है। इसे स्टीम इंजन की तर्ज तैयार किया गया है।
अलग जगह से मेटल के पार्ट इकट्ठा करके ट्रेन की शक्ल दी
पावेल ने इसे रेल को पसंद करने वाले लोगों के साथ मिलकर तैयार किया है। जिन्होंने अलग-अलग जगहों से मेटल के पार्ट इकट्ठा किए और इसे ट्रेन की शक्ल दी।
ट्रेन को तैयार करने में 10 साल लग गए
ट्रेन को तैयार होने में 10 साल का वक्त लगा है। यहां लोग अपनी फैमिली के साथ पहुंचते हैं और धीरे-धीरे चलने वाली रेल का आनंद उठाते हैं। बच्चों के साथ बड़ों को भी इस ट्रेन की यात्रा करना काफी पसंद है।
खुद को रेलवे तैयार करके बचपन का सपना पूरा किया
ट्रेन को तैयार करने वाले पावेल कहते हैं कि खुद का रेलवे तैयार करना मेरा बचपन का सपना था, जो 10 साल की मेहनत के बाद पूरा हो गया है। बिल्कुल 20वीं शताब्दी वाली ट्रेन की तरह इसे तैयार किया गया है।
ट्रेन के रूट में तीन ब्रिज, डेड एंड और सर्किट लूप भी शामिल
पावेल कहते हैं, इस धीमी गति से चलने वाली ट्रेन का सफर यादगार लगे इसके लिए रूट में कई चीजों को शामिल किया गया है। जैसे ट्रेन के रूट में आपको पेड़ों की टहनियां, डेड एंड, सर्किट लूप्स और तीन ब्रिज दिखाई देंगे।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मंगलवार को एक और चेतावनी दी। डब्ल्यूएचओ की प्रवक्ता मार्गेरेट हैरिस कोरोनावायरस के ट्रांसमिशन पर सवालों का जवाब देते हुए कहा, यह महामारी सीजनल बीमारी नहीं बल्कि एक बड़ी लहर है। लोग अभी तक इसे एक सीजनल बीमारी मान रहे हैं। कोरोना नई तरह का वायरस है यह इंफ्लुएंजा की तरह बर्ताव नहीं करता है जो सिर्फ खास मौसम में होता है। नया कोरोना अलग तरह से बिहैव करता है।
महामारी बड़ी लहर बनने जा रही
मार्गेरेट हैरिस ने जेनेवा में वर्चुअल कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, बड़े पैमाने पर भीड़-भाड़ वाले समारोह में यह धीमी गति से फैल रहा है, इससे रोकने के साथ अलर्ट होना जरूरी है। महामारी एक बड़ी लहर बनने जा रही है। जिसका ग्राफ बढ़ेगा-घटेगा, बेहतर होगा कि इसे सपाट करने के प्रयास करें।
फ्लू की वैक्सीन लगवाने की सलाह
मार्गेरेट हैरिस के मुताबिक, कोरोना का वायरस हर मौसम में सक्रिय रहता है। दक्षिणी गोलार्ध में कोरोना के साथ सीजनल इंफ्लुएंजा के मामलों का बढ़ना एक संयोग मात्र है। डब्ल्यूएचओ इस पर लगातार नजर रखे हुए है। अब तक लैब में आए सैम्पल में फ्लू के अधिक मामले सामने नहीं आए हैं। अगर आप पहले ही सांस से जुड़ी कोई बीमारी से जूझ रहे हैं तो संक्रमण होने पर हालत और नाजुक हो सकती है। ऐसे में हम आग्रह कर रहे हैं कि लोग फ्लू की वैक्सीन को लगवाएं।
प्रदेश में कोरोना के मामलों की समीक्षा करते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लोगों से AC, कूलर से बचने की सलाह दी है। उन्होंने अपना उदाहरण देते हुए कहा, मैं जहां कोरोना का इलाज करा रहा हूं वहां कूलर और AC का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। कोरोनावायरस का AC और कूलर से क्या कनेक्शन है, इसे समझने की जरूरत है क्योंकि केंद्र सरकार ने गाइडलाइन जारी करके इसका सीमित इस्तेमाल करने की सलाह दी है।
वो रिसर्च जिससे AC-कूलर के प्रयोग पर सवाल उठे
चीन में महामारी की शुरुआत में इस पर एक रिसर्च की गई। रिसर्च एक महिला पर हुई थी। शोध के मुताबिक, ग्वांगझू के रेस्तरां में एक महिला जहां बैठी थी उसके ठीक पीछे AC था और उसमें कोरोना के लक्षण दिखे थे। उसने अपनी टेबल पर बैठे चार लोग और 5 अन्य लोगों को संक्रमित किया। इस मामले के बाद AC का कोरोना के कणों से कनेक्शन ढूंढा गया।
अमेरिका की मैरीलैंड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता डाेनॉल्ड मिल्टन का कहना है कि यह रिसर्च साबित करती है कि कोरोना के कण हवा में मौजूद रहते हैं। हवा का मूवमेंट अधिक होने पर कोरोना के कण नाक तक आसानी से पहुंच सकते हैं।
इसका एक उदाहरण परागकणों से समझा जा सकता है। जिस रेस्तरां में यह घटना हुई वहां के एक्जॉस्ट फैन बंद थे। वहां ताजी हवा का फ्लो नहीं था। अगर ऐसी जगह पर एक साथ कई लोग संक्रमित हो सकते हैं तो ऐसे घर जहां वेंटिलेशन बेहद कम है, वहां खतरा और भी ज्यादा है।
प्रो. डाेनॉल्ड मिल्टन के मुताबिक, 1918 में फ्लू महामारी के दौरान भी मरीजों को ऐसी जगह रखा गया था जहां ताजी हवा आ सके। इन्हें टेंट के नीचे रखा गया था जिसके चारों तरफ कोई बंदिश या दीवार नहीं थी। विशेषज्ञों ने खुली हवा को डिसइंफेक्टेंट बताया था।
बाहर से आने वाली हवा कैसे कोरोना के कणों को रोकेगी
अमेरिकी शोधकर्ता किंगयान चेन कहते हैं कि अगर घर में कोई कोरोना का मरीज है तो AC को बंद कर देना ही बेहतर होगा। सबसे सेफ विकल्प है कि सारी खिड़कियां खोल दें। बंद कमरे से संक्रमण का खतरा कितना है, इस पर किंगयान कहते हैं कि ऐसी स्थिति में अगर ड्रॉप्लेट्स या कोरोना के बारीक कण होते हैं तो संक्रमण का खतरा बढ़ता ही है लेकिन जब बाहर से हवा आती है तो उस माहौल का दबाव घटता है। हवा उस दबाव को घटाती है।
ACहवा की नमी खत्म करता है, इससे खतरा सबसे ज्यादा
हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के प्रोफेसर एडवर्ड नार्डेल कहते हैं कि एयर कंडीशनर कोरोना के बेहद बारीक कणों को चारों तरफ फैला सकते हैं। AC हवा से नमी को खत्म कर देते हैं और हम सब जानते हैं कि वायरस को संक्रमण फैलाने के लिए सूखा वातावरण काफी पसंद है इसलिए वेंटिलेशन का ध्यान रखें।
अब ये समझें कि घर के अंदर AC या कूलर की हवा से कोरोना का क्या कनेक्शन है
लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज, नई दिल्ली के निदेशक डॉ. मधुर यादव कहते हैं कि बंद कमरे में AC एक ही हवा को बार-बार अंदर-बाहर फेंकता है। अगर घर में कोई संक्रमित इंसान है तो उसके ड्राॅपलेट्स बंद कमरे में AC के जरिए चारों तरफ घूमते रहेंगे तो संक्रमण का खतरा बढ़ेगा। इसलिए बाहर की ताजी हवा आना जरूरी है। इसीलिए ज्यादातर अस्पतालों में भी AC बंद कर दिए गए हैं।
डॉ. मधुर यादव कहते हैं, अगर घर में AC चला रहे हैं तो जरूरी है कि ताजी हवा घर के अंदर जरूर जाए। यही बात कूलर और पंखों के लिए भी है। कूलर चला रहे हैं तो घर के बाहर से इसका सम्पर्क होना चाहिए, ताकि इसके जरिए घर में ताजी हवा पहुंचे।
अब बात AC -कूलर से जुड़ी सरकारी गाइडलाइन की
25 अप्रैल को केंद्र सरकार ने कोरोना के बढ़ते मामलों के कारण एक गाइडलाइन जारी की। इसमें संक्रमण के मामले रोकने के लिए AC, कूलर और पंखे को इस्तेमाल करते समय कुछ सावधानियां बरतने की सलाह दी गई थी।
AC : तापमान 24 से 30 डिग्री होना चाहिए, खिड़कियां हमेशा थोड़ी खुली रखें
गाइडलाइन के मुताबिक, AC का इस्तेमाल करते वक्त ध्यान रखें कि कमरे का तापमान 24 से 30 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। ह्यूमिडिटी यानी नमी का स्तर 40 से 70 फीसदी तक रखें। AC चलाते वक्त खिड़कियां थोड़ी सी खुली रखें ताकि बाहरी हवा कमरे में आती रहे। वरना एक ही हवा बार-बार कमरे में रीसर्कुलेट होती रहेगी। अगर AC बंद है तो भी कमरे की खिड़की खुली रखें ताकि हवा लगातार आती रहे।
कूलर : इसे खिड़की या बाहर की तरफ रखने की सलाह
कूलर में हवा बाहर से आए, यह सबसे जरूरी है। इसलिए कमरे के अंदर न रखें। इसे खिड़की या बाहर की तरफ रखेंं। कूलर को साफ करते रहें और बचे हुए पानी को निकालकर ताजा पानी भरें। गाइडलाइन में कूलर में एयर फिल्टर लगाने की बात भी कही गई थी ताकि बाहरी धूल घर के अंदर न आए।
पंखा : कमरे में वेंटिलेशन के लिए एग्जॉस्ट फैन चलाएं
पंखा चलाते वक्त भी खिड़कियों को थोड़ा खुला हुआ रखने को कहा गया है। गाइडलाइन के मुताबिक, अगर कमरे में एग्जॉस्ट फैन लगा है तो उसे जरूर चलाएं ताकि वेंटिलेशन बना रहे।