कोविड-19 के बारे में किए गए कई अध्ययनों के अनुसार यह बीमारी व्यक्ति के फेफड़ों और सांस की नली को बुरी तरह प्रभावित करती है। लेकिन एक तथ्य से लोग अब भी वाकिफ नहीं हैं कि यह बीमारी नर्वस सिस्टम को भी गहरा नुकसान पहुंचा सकती है। कई मरीज स्ट्रोक के भी शिकार हो रहे हैं। कुछ हालिया अध्ययन बताते हैं कि कोविड के कुछ मरीजों में मस्तिष्क संबंधी समस्या होने का भी खतरा है।
कोरोना से ग्रस्त जिन मरीजों को पहले से ही मस्तिष्क संबंधी समस्या है, उनमें से अधिकतर मरीजों को स्ट्रोक जैसी गंभीर समस्या से भी गुज़रना पड़ा है। वहीं कुछ मरीजों को बेहोशी की समस्या हुई तो कई मरीजों ने मसल इंजरी की शिकायत भी की। ये सभी समस्याएं सीधे-सीधे नर्वस सिस्टम से जुड़ी हुई हैं। डॉ. विपुल गुप्ता, डायरेक्टर, इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोसाइंस अर्टमिस हॉस्पिटल बता रहे हैं कब अलर्ट हो जाएं....
कब नज़र आते हैं लक्षण?
कुछ मरीजों में स्ट्रोक के लक्षण कोविड के लक्षणों से पहले नज़र आ सकते हैं तो वहीं कुछ मरीजों में स्ट्रोक के लक्षण कोविड के निदान के 7-10 दिनों के बाद नज़र आते हैं।
क्यों हो रही है स्ट्रोक की समस्या?
इसको लेकर अब तक कई रिसर्च की जा चुकी हैं। इन रिसर्च से इसका एक कारण यह सामने आया है कि कोरोना से पीड़ित मरीजों के शरीर में डी-डाइमर नाम के केमिकल की मात्रा ज्यादा हो जाती है, जो खून के थक्कों के लिए जिम्मेदार माना जाता है। तो अगर मरीज पहले से किसी मस्तिष्क संबंधी समस्या से जूझ रहा है तो उसमें स्ट्रोक की आशंका बहुत बढ़ जाती है।
युवा भी हो रहे हैं शिकार
स्ट्रोक की समस्या आमतौर पर बुज़ुर्गों में ज्यादा देखने को मिलती है खासकर वे बुजुर्ग जो हाइपरटेंशन, डायबिटीज या कोलेस्ट्रॉल जैसी समस्याओं से पहले से ग्रस्त होते हैं। इसके अलावा यह समस्या उन बुजुर्गों में भी ज्यादा होती है जो धूम्रपान के आदी होते हैं। लेकिन कोविड से ग्रस्त युवा मरीजों में भी स्ट्रोक के केस पाए गए। वैसे ये केस ज्यादातर इंग्लैंड, अमेरिका और चाइना में पाए गए, लेकिन भारत में भी ऐसे मामलों से इनकार नहीं किया जा सकता।
सबसे जरूरी है- लक्षणों की पहचान
स्ट्रोक के मामले में समय पर इसके लक्षणों की पहचान और उसका निदान जरूरी है। जबसे लॉकडाउन लगा है, तबसे अस्पतालों में निदान के लिए सही समय पर पहुंचने वाले मरीजों की संख्या बेहद कम हो गई है। आजकल यदि किसी परिवार में किसी सदस्य में स्ट्रोक के लक्षण नज़र आते हैं तो वे कोरोना के डर से मरीज को अस्पताल ले ही नहीं जाते हैं। ऐसे में मरीज का निदान देर से होने के कारण गोल्डन टाइम निकल जाता है।
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