बच्चों में कोरोना का संक्रमण होता है तो मौत का खतरा बेहद कम है। ज्यादातर बच्चों में संक्रमण के बाद हल्के लक्षण दिखते हैं। यह दावा ब्रिटेन, यूरोप, स्पेन और ऑस्ट्रिया के शोधकर्ताओं ने अपनी रिसर्च में किया है। शोधकर्ताओं ने 3 से 18 साल के 585 कोरोना पीड़ितों पर रिसर्च की। रिसर्च 82 अस्पतालों में 1 से 24 अप्रैल के बीच की गई, जब यूरोप में महामारी अपने चरम पर थी। रिसर्च में सामने आया कि 62 फीसदी मरीजों को ही हॉस्पिटल में भर्ती करने की नौबत आई। वहीं, मात्र 8 फीसदी को आईसीयू की जरूरत पड़ी।
बच्चे मामूली तौर पर बीमार पड़ रहे हैं
रिसर्च द लैंसेट चाइल्ड एंड एडोलेसेंट हेल्थ जर्नल में प्रकाशित हुई है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के शोधकर्ता मार्क टेब्रूगेका कहना है कि हमारी रिसर्च कोविड-19 का बच्चों और किशोरों से कितना कनेक्शन है, यह बताती है। इनमें कोरोना से मौत का खबरा सबसे कम है।ज्यादातर बच्चे मामूली तौर पर बीमार पड़ते हैं।
50 फीसदी कोरेस्पिरेट्री ट्रैक्ट का संक्रमण हुआ
शोधकर्ताओं के मुताबिक,अब तक इतनी ज्यादा संख्या में बच्चों में कोरोना के मामले नहीं आए कि उन्हें आईसीयू की जरूरत पडे। रिसर्च में शामिल कोरोना से पीड़ित 582 बच्चों में 25 फीसदी तो ऐसे थे जो पहले से ही किसी न किसी समस्या से जूझ रहे थे।
- 379 मरीजों में बुखार जैसे लक्षण दिखे। करीब 50 फीसदी मरीजों के रेस्पिरेट्री ट्रैक्ट में संक्रमण हुआ। इनमें मात्र 25 फीसदी ही निमोनिया से जूझे।
- 22 फीसदी मरीजों को पेट से जुड़ी दिक्कत थीं। 582 में से 40 मरीज को सांसों से जुड़ी कोई समस्या नहीं हुई।
- 92 बच्चों में को कोरोना के कोई लक्षण नहीं दिखाई दिए और87 फीसदी को ऑक्सीजन लेने की जरूरत नहीं पड़ी।
4 मरीजों की मौत हुई
जिन 25 बच्चों को वेंटिलेटर की जरूरत पड़ी उन्हें एक हफ्ते या इससे अधिक समय तक ऑक्सीजन दी गई। रिसर्च के दौरान 4 मरीजों की मौत हुई। इनमें से 2 पहले की किसी बीमारी से परेशान थे। मरने वालेमरीजों की उम्र 10 से अधिक थी।
अलग-अलग देशों में कोरोना की स्थिति भी अलग
स्पेन यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल के शोधकर्ता बेगोना सेंटियागो-गार्सिया के मुताबिक, शोध के नतीजे सर्दियों में कोल्ड और फ्लू इंफेक्शन के समय बेहद काम के साबित होंगे। शोध के दौरान यूरोपीय देशों में जांच बड़े स्तर पर नहीं हो पा रही थीइसलिए हल्के लक्षण वाले कोरोना पीड़ित बच्चों की टेस्टिंग नहीं हो पाई थी। अलग-अलग देशों में कोरोना को समझने का तरीका भी अलग है। कोई स्टैंडर्ड तरीका न होने के कारण इतनीबड़ी जनसंख्या पर रिसर्च के नतीजे सामने लाना मुश्किल होता है।
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